बहू और बेटियों पर कु़र्बानी का ह़ुक्म


बहू और बेटियों पर कुर्बानी का हुकुम

🖋️ मुफ़्ती नासिरुद्दीन मज़ाहिरी अध्यापक मज़ाहिर उलूम वक़्फ सहारनपुर 

हिंदी तर्जुमा: मौलाना मुह़म्मद हयात


 रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलेही वसल्लम ने इरशाद फरमाया:

 कुर्बानी के दिनों (10.11.12 ज़िलहिज्जा में ) इंसान का कोई भी अमल अल्लाह ताला की बारगाह में कुर्बानी के जानवर का खून बहाने से ज़्यादा महबूब नहीं है और क़यामत के रोज़ कुर्बानी के जानवर अल्लाह ताला की बारगाह में अपने बालों, और खुरों, समीत हाज़िर होगा और इस मे कोई शक नहीं के कुर्बानी के जानवर का खून ज़मीन पर गिरने से पहले अल्लाह ताला की बारगाह में क़ुबूल हो जाता है तो ए मोमिनो ख़ुश दिली से कुर्बानी किया करो: (तिर्मीज़ी शरीफ)


कुर्बानी वाजिब होने का निसाब

वही है जो सदक-ए-फितर के वाजिब होने का निसाब है यानी जिस आकिल, बालिग़, मुकीम, (मुसाफिर ना हो ) मुसलमान मर्द या औरत की मिल्कियत में कुर्बानी के दिनों में क़र्ज़ की रकम अदा करने के बाद साडे 7 तोला सोना या साडे 52 तोला चांदी, या इसकी क़ीमत के बराबर राशी हो, या तिजारत का सामान, या ज़रूरत से ज़्यादा इतना सामान मौजूद हो जिसकी कीमत साडे 52 तोले चांदी के बराबर हो. या इनमें से कोई एक चीज़ या इन 5 चीजों में से कुछ का मजमूआ ( सब चीज़े थोड़ी-थोड़ी ) सड़े 52 तोले चांदी की क़ीमत के बराबर हो तो ऐसे मर्द ओर औरत पर कुर्बानी वाजिब है कुर्बानी वाजिब होने के लिए निसाब के माल, राशी, या ज़रूरत से ज़्यादा सामान पर साल गुज़रना शर्त नहीं है. और तिजारत का होना भी शर्त नहीं है. बस ज़िलहिज्जा की 12 तारीख को सूरज छुपने से पहले अगर निसाब का मालिक हो जाए तो ऐसे आदमी पर कुर्बानी वाजिब है, (दारुल इफ्ता जामिया उलूम-ए-इस्लामिया अल्लामा विन्नोरी टाउन )


औरतें मुखलिस होती हैं नेक और शरीफ होती हैं, 

दीन और दीनी तालीमात पर अमल करने में आगे-आगे रहती हैं सदके और खैरात के मामले में भी इनकी ग़ैरत क़ाबिल-ए-रश्क होती है औरतों की सख़ावत के क़िस्से किताबों में भरे हुए हैं, लेकिन कुर्बानी के सिलसिले में औरतों से आमतौर पर ग़फलत होती है, औरतें अपने मेहर और अपनी जेब खर्ची को जमा कर के साहिब-ए-निसाब भी हो जाती है और उन्हें बताया भी नहीं जाता के वह जिस माल की मालिक है उसकी मालियत इतनी हो चुकी है के शरीअत में वह साहिब-ए-निसाब हो चुकी है और अब ना सिर्फ कुर्बानी वाजिब हो गई है बल्के साल गुजरने पर ज़कात भी जरूरी हो चुकी है,

आज के दोर में लोग मेहर बहुत ज़्यादा तय करते हैं, आमतौर पर इतना मेहर तय करते हैं के निकाह के दिन ही औरत साहिब-ए-निसाब हो जाती है।  

पति हिसाब-किताब करके ज़कात भी देता है, सदक-ए-फितर और कुर्बानी भी देता है, लेकिन अपनी पत्नी से बेखबर रहता है और पत्नी भी ध्यान नहीं देती है।

जकात और कुर्बानी अदा करनी चाहिए हीले बहाने नहीं ढूंढने चाहिए बल्के खुश दिली के साथ ज़कात अदा करनी चाहिए कुर्बानी भी करनी चाहिए देखने में आता है के जब औरतों से उनके मेहर और उनकी अपनी राशि का हिसाब किताब किया जाए और साहिब-ए-निसाब होने पर उन्हें बताया जाए कि तुम्हारे ऊपर कुर्बानी भी वाजिब है और जकात भी जरूरी है तो वह आना कानी करती हैं अपने माल का मालिक अपने पति को बता कर पति को ही जुर्म के कठहरे मे ला खड़ा करती है कभी कभी पति भी बीवी के माल से ला तअल्लुकी (मेरा कोई अधिकार नही है ) ज़ाहिर करते हैं ताके बीवी की तरफ से ज़कात से बचा जा सके, इन हीलों और बहानों से काम नहीं चलेगा।

अल्लाह तआला हर चीज़ देख रहा है उसीने हमे माल दिया है वो हमारे एक एक राज़ को जानता है कल हीलों ओर बहानो के बरे मे पूछ होगी तो हमारे पास कोई जवाब नही होगा।


पत्नियों और शादीशुदा बहनों के पास जो ज़ेवर मेहर के अलावा है अगर पति ने मालिक बना दिया है तो फिर यह आपका ही ज़ेवर है आप ही इसकी मालिक है वैसे भी जो ज़ेवर लड़की वाले या ससुराल वाले दुल्हन को देते हैं वह उसकी मालिक होती हैं पति उसको वापस नहीं ले सकता, 

हजरत मौलाना मुफ्ती अब्दुल कय्यूम हज़ारवीं से एक महिला ने ज़कात और कुर्बानी के बारे में पूछा तो मुफ्ती साहब ने फरमाया:


  “यदि तुम्हारे पास साढ़े 7 तोले सोना है तो तुम साहिब-ए- निसाब हो। आप पर कुर्बानी वाजिब है, अगर आपके पास पैसे नहीं हैं तो सोना बेचकर कुर्बानी दें। जब तक आप साहिब-ए- निसाब हैं आप पर कुर्बानी वाजिब रहेगी। पति अपनी कुर्बानी करेगा, तुम अपनी अलग करोगी। पति अगर अपनी ओर से कर ने के साथ एक आपकी ओर से करदे तो आपको सवाब मिलेगा।"

दारुल उलूम देवबंद से एक साहब ने पूछा मेरी बीवी की मिल्कियत में सोना और कुछ ज़ेवर है जिसकी मैं ज़कात देता हूं क्या इन ज़ेवरात की मालियत पर कुर्बानी वाजिब होगी.

इसका जवाब दिया गया के : जी हां इन ज़ेवरात की मालियत पर कुर्बानी वाजिब होगी,


इसी तरह एक साहब ने अपनी मां और अपनी बीवी के बारे में पूछा:

मेरे अब्बा घर के सरबराह (बड़े ) है उन्हों ने अपनी कमाई से मेरी मां को सोने का एक सेट दिया है जिस की मालियत क़रीब-क़रीब दो लाख रुपये है इसी तरह में ने भी अपनी कमाई से अपनी बीवी को एक सेट दिया है यह दोनो औरतें हाउस वाइफ है और खुद कमाती नहीं है, मुझे ये पूछना है के क्या इन दोनो पर कुर्बानी वाजिब है ?


दारुल इफ्ता जामिया उलूम-ए-इस्लामिया बिन्नोरी टाउन ने इसका जवाब दिया के :

 ज़िक्र की गई स्थिति में अगर सेटों की मिक़दार साडे 52 तोला सोने से कम है और उन दोनों औरतों के पास कुछ नक़द पैसे भी है तो दोनों पर कुर्बानी वाजिब है। 

अगर आपके वालिद और आप उनकी तरफ से कुर्बानी कर ले तब भी उनके ज़िम्मे से वाजिब अदा हो जाएगा और अगर ज़ेवर की मिक़दार साडे 7 तोले से कम है और उनके पास नक़द पैसे भी नहीं है तो उन पर कुर्बानी वाजिब नहीं।


दारुल इफ्ता जामिया फारुकिया कराची से एक साहब ने पूछा:

हमारे घर में हम सब लोग शुरु ही से एक साथ मिल कर (समझौते ) से रह रहे हैं घर की तमाम जिम्मेदारी जैसे ख़र्च. सदका. फितरा. और कुर्बानी वगैरा भी घर का जिम्मेदार आदमी मुश्तरक तौर पर करता है.

पूछना यह है के जिस तरह हमारे घर के मर्दों पर कुर्बानी वाजिब है इसी तरह हमारी औरतों पर भी वाजिब है या नहीं ?

जब के सूरत-ए-हाल यह है के घर में मौजूद हर औरत के पास साडे 7 तोले सोना और इस्तेमाल के कपड़े कम से कम 20 जोड़ी और कुछ ना कुछ नकद राशी भी हर वक्त मौजूद रहती हैं।

 जिक्र की गई सूरत को देखते हुए बताएं कि इस स्थिति में औरतों पर भी कुर्बानी वाजिब है ? और वाजिब होने की सूरत में औरत खुद कुर्बानी करें या घर के जिम्मेदार के जिम्मे कर दे क्योंकि हमारा घर मुश्तरक ( सब मिल जुल कर एक साथ रहते ) है ?


इसका जवाब दिया गया के :

"औरत अगर खुद साहिब-ए-निसाब हो तो उस पर कुर्बानी वाजिब है चाहे वह शादीशुदा हो या शादीशुदा ना हो बयान की गई सूरत में घर की तमाम औरतें साहिब-ए-निसाब है लिहाज़ा हर एक के जिम्मे में अलग-अलग कुर्बानी वाजिब है. इसलिए घर के जिम्मेदार को चाहिए के उनकी तरफ से भी कुर्बानी का एहतिमाम करें।


कुछ नई सोच के लोग कुर्बानी के मौके पर शोर मचाने लगते हैं के कुर्बानी की रकम किसी ग़रीब, यतीम, मिस्कीन, या बेवा को दे दी जाए तो ज़्यादा सवाब मिलेगा याद रखें इस तरह के बहाने शैतानी भ्रम के सिवा कुछ भी नहीं है. आप इन गरीबों की मदद करें. यतीमों की मदद से किसी ने नहीं रोका है लेकिन मदद के नाम पर कुर्बानी को ही छोड़ देना इस्लामी शरीयत की मुखालिफत है और गुनाह का सबब है।

इसी तरह कुछ मर्द और औरतें समझती हैं के घर में एक बकरा या बड़े का एक हिस्सा सब के लिए काफी हो गया ऐसा हरगिज़ नहीं है तमाम साहिब-ए-निसाब मर्द और औरतों को अपनी अपनी तरफ से कुर्बानी करना जरूरी है.


 दूसरे की तरफ से कुर्बानी करने के लिए इजाज़त जरूरी है वरना उस पर कुर्बानी बाकी रहेगी.


 इसी तरह कुर्बानी सिर्फ कुर्बानी के दिनों (10, 11, 12, ) ज़िलहिज्जा में ही अदा होगी बाद में चाहे आप सो जानवर अल्लाह की राह में कुर्बान कर दें कुर्बानी अदा नहीं होगी ।

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कुर्बानी से पहले मुखलिसाना अपील

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