जशने ई़द मीलादुन्नबी ﷺ की‌‌ ह़क़ीक़त جشنِ عید میلاد النبی ﷺ کی حقیقت

 ✨❄ इस़लाहे़ अग़लात़: अ़वाम में राएज ग़लतियों की इसलाह़ ❄✨



सिलसिला 47:

🌻 *जशने ई़द मीलादुन्नबी ﷺ की‌‌ ह़क़ीक़त:*


🌼 *हुज़ूर अक़दस ﷺ का ज़िक्र मुबारक:*

यह बात रोज़े रोशन से भी ज़्यादा वाज़ेह़ (और ज़ाहिर) है कि हुज़ूर अक़दस ﷺ की‌‌ मुहब्बत हर मोमिन के ईमान का अहम जुज़ (और हिस्सा) है, और हुज़ूर अक़दस ﷺ की‌‌ पैदाइश से ले कर विसाल (और वफात) तक पूरी मुबारक ज़िंदगी की सीरत और हालात का तज़किरा बड़ी ही रहमतों और बरकतों के नुजूल का बाईस है (आप ﷺ का ज़िक्र मुबारक रहमतों और बरकतों के उतरने का सबब है), और इस ह़क़ीक़त में भी दो राए नहीं कि हुज़ूर अक़दस ﷺ का ज़िक्र मुबारक अफ़ज़ल आमाल में से है जो कि बड़े ही अज्र व सवाब का ज़रिया है, इस लिए हर मुसलमान की ज़िम्मेदारी बनती है और यह हुज़ूर अक़दस ﷺ की‌‌ मुहब्बत का तकाज़ा भी है कि हुज़ूर अक़दस ﷺ के ज़िक्र मुबारक को ज़िंदगी का एक अहम जुज़ (और हिस्सा) बनाए, अपनी ज़बान और दिल को हुज़ूर अक़दस ﷺ की सीरत के तज़किरों से मुनव्वर (और रोशन) करे और हुज़ूर अक़दस ﷺ की मुहब्बत में उन की ह़याते तत्यिबा (और आप ﷺ की ज़िंदगी) के मुबारक हालात से भरपूर वाक़िफिय्यत (और जानकारी) हासिल करे। निहायत ही अफ़सोस है उस मुसलमान पर जो हुज़ूर अक़दस ﷺ की मुहब्बत का दावा भी करे और फिर हुज़ूर अक़दस ﷺ की सीरत से वाक़िफिय्यत (और आप की ज़िंदगी के हालात की जानकारी) भी हासिल ना करे और ना ही उसे हुज़ूर अक़दस ﷺ के मुबारक तज़किरों से दिलचस्पी हो, यह बड़ी बदनसीबी है!!


🌼 *मोमिन का हर लम्हा रबी उ़ल अव्वल है:*


बहुत से मुसलमानों का ये हाल है कि जब रबी उल अव्वल आता है तो उन्हें हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लइहि वसल्लम की मुहब्बत और इश्क़ याद आ जाता है, सीरत के जलसे याद आ जाते हैं, दरूद शरीफ़ के एहतमाम का शौक़ उभर आता है, हत्ता कि हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लइहि वसल्लम की मुहब्बत और इश्क़ के इज़हार के नित नए नमूने देखने को मिलते हैं, ज़रा सोचिए कि क्या हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लइहि वसल्लम के साथ मुहब्बत और उसके इज़हार का सिलसिला सिर्फ माहे रबी उल अव्वल के साथ खास है?? क्या हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लइहि वसल्लम की सीरते मुबारका के तज़किरे सिर्फ इस माहे मुबारक के साथ मख़सूस हैं??

ज़ाहिर है कि कोई भी मुसलमान इसका दावा नहीं कर सकता, कियोंकि हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लइहि वसल्लम के साथ मुहब्बत तो पूरे साल बल्कि ज़िन्दगी भर का मामला है, ये किसी महीने के साथ खास नहीं और ना ही चंद चीज़ों के साथ ख़ास है, बल्कि मोमिन की ज़िन्दगी का हर लम्हा रबी उ़ल अव्वल है कि वो हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मुहब्बत में ज़िन्दगी के हर मामले में हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की तालीमात को मद्दे नज़र (और आप ﷺ की सुन्नतों का खयाल) रखता है, हर वक़्त उसकी ज़बान पर हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लइहि वसल्लम के मुबारक तज़किरे होते हैं, वो ज़िन्दगी भर इ़बादात, मुआ़मलात, मुआशरत (रहन सहन) और अख़्लाक़ियात में हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सुन्नतों का शैदाई (और उन पर फिदा) होता है।

इसलिए हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लइहि वसल्लम की मुहब्बत के तअल्लुक़ को माहे रबी उल अव्वल के साथ ख़ास करना ये हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ इश्क़ के तक़ाज़ों और उनकी तालीमात के ख़िलाफ़ है, ख़ुसूसन जब्कि हज़राते सहाबा किराम और हज़राते ताबिईन के मुबारक ज़मानों में माहे रबी उल अव्वल से मुताल्लिक़ कोई ख़ास सरगर्मी (और हलचल) नज़र नहीं आती और ना ही उन्होंने इस माह में साल के दीगर महीनों की बनिस्बत खुसूसियत के साथ इश्क़ व मुहब्बत के नमूने अपनाए हैं।


🌼 *जशने ई़द मीलिदुन्नबी ﷺ की ह़क़ीक़त:*

हुज़ूर पुर नूर ﷺ का ज़िक्र मुबारक; ज़िंदगी भर, पूरे साल, पूरे महीने, किसी हफ़्ते, किसी भी दिन और किसी भी लम्हे ममनू (मना) नहीं, बल्कि बड़े ही बरकत और सआ़दत वाले हैं वह लम्हात जिन में हुज़ूर अक़दस ﷺ का ज़िक्र मुबारक किया जाए। इस में तो किसी भी मुसलमान को तरद्दुद (शक) और इख़्तिलाफ नहीं हो सकता, अलबत्ता जो बात बाइ़से इख्तिलाफ और क़ाबिले एतिराज़ है वह यह है कि हुज़ूर अक़दस ﷺ के ज़िक्र मुबारक के लिए माहे रबीउल अव्वल को ख़ास करना, हुज़ूर अक़दस ﷺ की मुहब्बत के नाम पर यौमे विलादत (पैदाइश का दिन) या मीलाद मनाना, माहे रबीउल अव्वल और खुसूसन ‌उस की 12 तारीख को हुज़ूर अक़दस ﷺ की आमद या मीलाद की खुशी में जलसे जुलूस मुन्अ़क़िद करना, उस को ईद क़रार दे कर ईद जैसे आमाल सर अंजाम देना, चरागां‌ करना, हुज़ूर अक़दस ﷺ की तारीखे विलादत (पैदाइश की तारीख) को सुबह सादिक के वक़्त आमदे मुबारक की खुशी में क़याम करना (खड़े होना), मीलादुन्नबी ﷺ की निस्बत से दीगर उमूर (दूसरे काम) सर अंजाम देना शरीअ़त की नज़र में क्या हैसियत रखता है??

क्या यह काम हुज़ूर अक़दस ﷺ, ह़ज़रात सह़ाबा किराम رضی اللہ عنہم, ह़ज़रात ताबिई़न और तबे ताबिई़न رحمہم اللہ से साबित हैं? अगर साबित हैं तो ज़ाहिर है कि फिर तो किसी मुसलमान के लिए इस में तरद्दूद (और शक) की गुंजाइश नहीं, लेकिन यह ह़क़ीक़त है कि हुज़ूर अक़दस ﷺ के 23 सालह अ़हदे नबुव्वत (23 साल के नबुव्वत के ज़माने) में रबीउल अव्वल में मीलाद के नाम पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, फिर तक़रीबन 30 साल खिलाफते राशिदा (हज़रत अबू बकर, हज़रत उमर, हज़रत उस्मान और हज़रत अली رضی اللہ عنہم की खिलाफत) का ज़माना रहा फिर तकरीबन दो सौ (200) साल तक खौरुल कुरून (सह़ाबा, ताबिई़न और तबे ताबिई़न) का ज़माना बनता है, यह पूरा अरसा (ज़माना) माहे रबीउल अव्वल में जशने‌ मीलाद से खाली नज़र आता है, तो क्या वजह है कि उन्हों ने इश्क़ के नाम पर यह जशन नहीं मनाया? और इस के तमाम तर अस्बाब मौजूद होने के बावजूद भी उन्हों ने यह ईद ईजाद नहीं की, तो आज यह सब कैसे दुरुस्त हो सकता है?? आज यह इश्क़ के नाम पर कैसे अपनाया जा सकता है?? आज यह हुज़ूर अक़दस ﷺ के साथ इश्क़ का मेयार (और मुहब्बत का पैमाना) कैसे बन सकता है?? इस तमाम सूरते हा़ल से ई़द मीलिदुन्नबी का बिदअ़त होना बख़ूबी (अच्छी तरह) वाज़ेह़ (और ज़ाहिर) हो जाता है।


🌼 ‌ *जशने ई़द मीलिदुन्नबी ﷺ और दीगर मुनकरात (दूसरी बुराइयां):*

जशने ई़द मीलिदुन्नबी ﷺ के नाजाएज़ और बिदअ़त होने से मुतअ़ल्लिक़ मुतअ़द्दिद मुफस्सल और मुदल्लल कुतुब तह़रीर की जा चुकी हैं (बहुत सी किताबें दलीलों के साथ लिखी जा चुकी हैं) जिन में बड़ी तफ़्सील से इस मसले की ह़क़ीक़त वाज़ेह़ की गई है, और यह मज़ामीन इस क़दर कसरत से लिखे गए हैं कि ई़द मीलाद की ह़क़ीक़त समझने के लिए यह काफी हैं, और इन कुतुब (किताबों) में उन खुद साखता (अपनी तरफ से बनाए हुए) और बे-बुनियाद दलाइल ‌ के मुदल्लल जवाबात भी हैं जो कि ई़द मीलाद को जाएज़ बल्कि मुस्तह़ब क़रार देने के लिए घड़े गए हैं। यह ह़क़ीक़त अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि ई़द मीलादुन्नबी ﷺ अपनी जा़त में एक बिदअ़त अ़मल है, गोया कि अगर इस में कोई और नाजाएज़ और ग़ैर शरई़ काम ना भी हो, तब भी इस के नाजाएज़ और बिदअ़त होने में कोई तरद्दुद और शक नहीं, क्योंकि दीन इस्लाम में इस का कोई तसव्वुर (और तअ़ल्लुक़) ही नहीं।

इसी के साथ साथ मजी़द अफसोसनाक सूरते हा़ल यह भी है कि जशने ई़द मीलाद मनाने की आड़ में बहुत से गुनाहों और ग़ैर शरई़ उमूर (कामों) का भी इरतिकाब किया जाता है जिन में साल ब साल इज़ाफ़ा देखने को मिलता है।

जैल में (नीचे) ई़द मीलाद से मुतअ़ल्लिक़ चंद बुनियादी बातें ज़िक्र की जाती हैं ताकि मुख्तसर अंदाज़ में इस की ह़क़ीक़त वाज़ेह़ (और ज़ाहिर) हो सके:

☀️ जशने ई़द मीलादुन्नबी ﷺ के बिदअ़त और नाजाएज़ होने के लिए इतनी बात काफी है कि क़ुरआन व सुन्नत, ह़ज़रात सह़ाबा किराम और खैरुल क़ुरून के मुबारक ज़मानों से इस का सुबूत नहीं मिलता जिस की तफ़्सील माक़ब्ल में (ऊपर) बयान हो चुकी। बल्कि यह बिदअ़त 6 सदी हिजरी (600 साल) के बाद ईजाद हुई, तफ़्सील के लिए देखिए हज़रत अ़ल्लामा सरफराज़ खान सफदर رحمۃ اللہ علیہ की माया नाज़ किताब "राहे सुन्नत"।

☀️ माहे रबीउ़ल अव्वल को ख़ास करके बल्कि लाज़िम समझ कर ज़िक्रे विलादत बा-सआ़दत करना, हुज़ूर अक़दस ﷺ का ज़िक्र मुबारक करना और सीरत के जलसे मुनअ़क़िद करना शरीअ़त के ख़िलाफ़ है, क्योंकि शरीअ़त ने जो अमल किसी माह के साथ ख़ास नहीं किया, उसे किसी माह या दिन के साथ ख़ास करना और उसे लाज़िम समझना शरअ़न ‌(शरीअ़त में) दुरुस्त नहीं, बल्कि यह बिदअ़त के ज़ुमरे में आता है जैसा कि ईसाले सवाब के नाम पर तीजा, चालीसवां वगैरा का हुक्म है। आजकल तो इस को ऐसा लाज़िम समझा जाने लगा है कि जो हजरात इस माहे रबीउल अव्वल में ई़द मीलाद नहीं मनाते और ई़द मीलाद के नाम पर जलसे जुलूस नहीं करते उन को तनक़ीद व ‌मलामत (और बुराई) का निशाना बनाया जाता है और उन के इ़शक़े ‌ रिसालत को शक की निगाहों से देखा जाता है, और यह भी कह दिया जाता है कि इन के दिल में हुज़ूर अक़दस ﷺ के ज़िक्र की मुहब्बत नहीं है, यह लोग हुज़ूर अक़दस ﷺ के ज़िक्र को पसंद नहीं करते, मआ़ज़ल्लाह (अल्लाह की पनाह)। ज़ाहिर है कि यह तमाम बातें शरीअ़त के खिलाफ और नाजाएज़ हैं।

☀ हुज़ूर अक़दस ﷺ का यौमे विलादत (पैदाइश का दिन) मनाया जाता है, हालांकि इस्लाम में किसी शख्सियत के दिन मनाने का कोई तसव्वुर (और ह़क़ीक़त) ही नहीं, इस लिए हुज़ूर अक़दस ﷺ की विलादत का दिन मनाना शरीअ़त के खिलाफ है।

☀️ हुज़ूर अक़दस ﷺ के यौमे विलादत को ईद मीलादुन्नबी ﷺ का नाम दे कर मनाया जाता है, हालांकि इस्लाम में इस ईद का कोई तसव्वुर (और ह़क़ीक़त) ही नहीं।


☀️ जशने ई़द मीलाद के नाम पर चरागां किया जाता है और झंडे लगाए जाए हैं, हालांकि दीन में ना तो ई़द मीलाद का कोई तसव्वुर (और ह़क़ीक़त) है और ना ही इस के लिए चरागां करने और झंडे वागैर लगाने का, इस लिए यह भी शरीअ़त के खिलाफ है।

☀️ बाज़ मक़ामात (कुछ जगहों) पर ई़द मीलाद मनाने के लिए चोरी की बिजली इस्तेमाल की जाती है जिस का हराम होना वाज़ेह़ है।

☀️‌ ई़द मीलादुन्नबी ﷺ का जुलूस निकाला जाता है हालांकि इस का कोई सुबूत नहीं।

☀️ ई़द मीलाद के जलसे और जुलूस के लिए रास्तों को बंद कर दिया जाता है जिस से गुज़रने वालों को तक्लीफ का सामना होता है, हालांकि शरीअ़त में इस की मुमानअ़त (शरीअ़त में मना) है।

☀️‌ई़द मीलाद के नाम पर रात भर उ़मूमी इस्पीकर से नात या सीरत बयान करके महल्ले वालों को तक्लीफ दी जाती है जो कि सरासर नाजाएज़ ह़रकत है।

☀️ बाज़ मक़ामात (कुछ जगहों) पर ई़द मीलाद के जलसों और ताक़ारीब (प्रोग्रामों) में आलाते मोसूक़ी और मोसूक़ी (गाने) के तर्ज़ के साथ नात पढ़ी जाती है जो कि ग़ैर शरई़ अ़मल बल्कि निहायत ही बे अदबी है।

🌼 बाज़ मक़ामात (कुछ जगहों) पर ई़द मीलाद के नाम पर मर्द व ज़न (मर्द औरत) का मखलूत (एक साथ) इज्तेमा मुन्अ़क़िद किया जाता है जिस का नाजाएज़ होना वाज़ेह (और ज़ाहिर) है।

☀️ बहुत से खतीब (बयान करने वाले) हज़रात मीलाद की मजालिस में ग़ैर मोतबर रिवायात और मनघड़ंत वाक़िआत भी बयान करते रहते हैं जो कि शरअ़न ममनू (शरीअ़त में मना) है।

☀️ ई़द मीलाद के नाम पर खाने की चीज़ें तकसीम की जाती हैं, शर्बत की सबीलें लगाई जाती हैं और इस के फजा़इल भी बयान किए जाते हैं, वाज़ेह़ रहे कि एक तो ई़द मीलाद के नाम पर उन‌ खाने पीने की तक़सीम ही गैर शरई (शरीअ़त के खिलाफ) है, दोम (दूसरे) यह कि इन चीज़ों को माहे रबीउल अव्वल के साथ ख़ास करना भी गैर शरई अमल है, ऐसी बातें सह़ाबा किराम और ताबिई़ने इ़जा़म से साबित नहीं।

☀️ अल्ग़र्ज़ माहे रबीउ़ल अव्वल में ई़द मीलाद और इ़शक़े नबवी के नाम पर शरई़ अह़कामात की पामाली (दीन के हुक्म से दूरी)और बिदआ़त की तरवीज (बिदअ़त पर अ़मल) का सिलसिला ज़ोर व शोर से जारी रहता है।


🌼 *जशने ई़द मीलाद से मुतअ़ल्लिक़ किन बातों में इखतिलाफ है (किन बातों में दोनों पक्षों के बीच असहमति है)??*

यह बात समझना भी निहायत ही अहम है कि जशने ई़द मीलाद मनाने वाले हज़रात और इस को बिदअ़त कहने वाले हज़रात के माबैन‌ (इन के दरमियान) किन बातों में इख्तिलाफ (असहमति)है, ताकि सही नुक़त-ए-नज़र वाज़ेह़ (सह़ी मसलक मालूम) हो सके, वरना तो जशने ई़द मीलाद मनाने वालों की जानिब से ऐसे दलाइल दिए जाते हैं जो फरीकैन (मीलाद मनाने वालों और बिदअ़त बताने वालों: दोनों को वह दलीलें) तसलीम होते हैं, इसी तरह जशने ई़द मीलाद से मना करने वाले हज़रात पर तरह तरह के इल्ज़ामात भी लगाए जाते हैं, हालांकि यह सब कुछ गलत फहमी या ना समझी का नतीजा है, इस लिए यह समझिए कि जशने ई़द मीलाद मनाने वाले हजरात और इस को बिदअ़त कहने वाले हजरात के माबैन‌ (इन के दरमियान) किन बातों में इख्तिलाफ है और किन बातों में इत्तिफाक़ है (किन बातों से सहमत हैं और किन बातों से असहमत)??


🌼 *दर्ज ज़ैल (निम्नलिखित) बातों पर फ़रीक़ैन का इत्तिफ़ाक़ है (दोनों तरफ के लोग सहमत हैं):*

💐 हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की विलादत बा सआदत (पैदाइश) में इख़्तिलाफ़ नहीं।

💐 हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की दुनिया में तशरीफ़ आवरी के नेमत, बाइ़से रहमत और बाइ़से हिदायत होने में इख़्तिलाफ़ नहीं।

💐 हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की दुनिया में तशरीफ़ आवरी पर खुश होने और उस पर अल्लाह का शुक्र अदा करने के मामले में इख़्तिलाफ़ नहीं।

💐 हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की सीरत के तज़किरे करने, हालात व वाक़िआत बयान करने और ज़िंदगी का हर हर पहलू बयान करने के बाइसे अज्र व सवाब होने और बाइसे नुज़ूले बरकत होने में इख़्तिलाफ़ नहीं। (इस बात में इख्तिलाफ़ नहीं कि हुज़ूर अक़दस ﷺ के हालात बयान करना अज्र व सवाब का काम है)

💐 हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के साथ इश्क़ व मुहब्बत के ज़रूरी बल्कि अहम ईमानी जुज़ (ईमान का हिस्सा) होने में इख़्तिलाफ़ नहीं।

💐 हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की तालीमात को अपनाने की अहमियत में इख्तिलाफ नहीं।

💐 हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की शान मुबारक में नात लिखने और नात पढ़ने के बाइसे अज्र व सवाब होने में इख़्तिलाफ़ नहीं।

💐 हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम पर दरूद शरीफ़ भेजने की फ़ज़ीलत और अहमियत में इख़्तिलाफ़ नहीं।

💐 हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मदह (और आप ﷺ की तारीफ) में शरई़ हुदूद में रहते हुए सीरत का जलसा या नात की महफ़िल मुनअक़िद करने में इख़्तिलाफ़ नहीं।

 💐 हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की विलादत बा सआदत (पैदाइश) के तज़किरे बयान करने की अहमियत व फ़ज़ीलत में इख़्तिलाफ़ नहीं।


ये वो बातें हैं जिन पर इत्तिफ़ाक़ है, (दोनों पक्ष इन बातों से सहमत हैं) इसलिए इन बातों के इसबात (साबित करने) के लिए दलाइल (दलीलें) देने की हाजत (और ज़रूरत) नहीं कियोंकि ये सब बातें पहले ही से मुसल्लम (मानी जाती) हैं और उ़मूमन ईद मीलाद से मुताल्लिक़ जो दलाइल दिए जाते हैं वो इन्ही बातों के बारे में होते हैं, जिस से इन दलाइल का बे बुनियाद होना बखूबी वाज़ेह (अच्छी तरह मालूम) हो जाता है।

अब ज़रा मुलाहज़ा कीजिये कि इख़्तिलाफ़ और एतिराज़ की बातें कौन सी हैं ताकि मामले की सही सूरते हाल वाज़ेह हो सके।


🌼 *दर्जै ज़ैल (निम्नलिखित) बातों में इख़्तिलाफ़ (असहमति)है:*

▪ माहे रबी उ़ल अव्वल को ख़ास करके बल्कि लाज़िम समझ कर ज़िक्रे विलादत बा सआदत करने,हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम का ज़िक्रे मुबारक करने और सीरत के जलसे मुनअक़िद करने में इख़्तिलाफ़ है।

▪ इस माहे रबी उ़ल अव्वल में जशने ईद मीलाद ना मनाने वालों को तनक़ीद व मलामत (और बुराई) का निशाना बनाने पर एतिराज़ है।

▪ शख़्सियत (किसी शख्स) का दिन मनाने में इख़्तिलाफ़ है जिसका इस्लाम में कोई तसव्वुर (और ह़क़ीक़त) ही नहीं।

▪ यौमे विलादत का जशन मनाने में इख़्तिलाफ़ है।

▪ इसे ईद मीलाद उन नबी सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम का नाम देने और इस में ईद का समां पैदा (और ई़द जैसे आमाल) करने में इख़्तिलाफ़ है।

▪ जशने मीलाद के नाम पर चरागां करने, झंडे वग़ैरा लगाने, रास्तों को बंद करने और रात भर उ़मूमी स्पीकर से नात या सीरत बयान करके महल्ले वालों को तकलीफ़ देने पर एतिराज़ है।

▪ ई़द मीलाद का जुलूस निकालने पर एतिराज़ है।

▪ आलाते मौसीक़ी और मौसूक़ी (गाने) के तर्ज़ के साथ नात पढ़ने पर एतिराज़ है।

▪ ई़द मीलाद के नाम पर मर्द व ज़न की मखलूत तकारीब (मर्द और औरत के एक साथ प्रोग्राम) मुनअ़क़िद करने पर एतिराज़ है।

▪ ईद मीलाद के नाम पर खाने पीने की चीज़ें तक़सीम करने, शर्बत की सबीलें लगाने और उसके ख़ुद साख़्ता (अपनी तरफ़ से बनाए हुए) फ़ज़ाइल बयान करने में इख़्तिलाफ़ है।

▪ इश्क़े नबवी के नाम पर शरई़ अहकामात की पामाली (शरीअ़त से दूरी) और बिदआ़त की तरवीज (बिदअ़त को रिवाज देने) पर एतराज़ है‌।

और ये इख़्तिलाफ़ और एतिराज़ इसलिए है कि हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के 23 साला अ़हदे नबुव्वत में (आप ﷺ की नबुव्वत के 23 साल के ज़माने में) रबी उल अव्वल में मीलाद के नाम पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, फिर तक़रीबन 30 साल खिलाफते राशिदा का ज़माना रहा, फिर तक़रीबन 200 साल तक खैरुल क़ुरुन का ज़माना बनता है, ये पूरा अर्सा (ज़माना) माहे रबी उल अव्वल में जशने मीलाद से ख़ाली नज़र आता है, तो क्या वजह है कि उन्होंने इश्क़ के नाम पर ये जशन नहीं मनाया? और इस के तमाम तर असबाब होने के बावजूद उन्होंने इसे ईजाद नहीं किया तो आज ये कैसे दुरुस्त हो सकता है?? आज ये हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ इश्क़ का मेयार (और पैमाना) कैसे बन सकता है?? 

इन बाइसे एतराज़ व इख़्तिलाफ़ बातों का सुबूत होना चाहिए, बाक़ी जो बातें फ़रीक़ैन के नज़दीक मुसल्लम हैं (दोनों लोगों के दरमियान मानी जाती हैं) उनका सुबूत देने की हाजत नहीं।

इस तफ़्सील को समझने के बाद उन दलाइल (दलीलों) की हक़ीक़त वाज़ेह हो जाती है जो ईद मीलाद मनाने के लिए दिए जाते हैं।


🌼 *इख़्तिलाफ़ की नौइयत को समझिये (कि इख्तिलाफ किस तरह़ का है?):*


मा क़ब्ल (ऊपर) की ये मुक़र्रर (दोबारा) तफ़्सील सिर्फ इसी लिए बयान की गई कि इख़्तिलाफ़ की नौइयत वाज़ेह हो जाए और ये नौइयत समझना निहायत ही अहम है कियोंकि फरीक़े मुखालिफ (मीलाद मनाने वालों) की जानिब से ऐसी बातें की जाती हैं और ऐसे ख़ुद साख़्ता (अपनी तरफ से बनाए हुए) दलाइल दिए जाते हैं कि हक़ीक़त से ना वाक़िफ़ (दूर) एक आम आदमी परेशान हो जाता है, इस की मिसाल ऐसी है कि अगर आप किसी शख़्स से कहें कि आप जो अज़ान से पहले दरुद व सलाम पढ़ते हैं ये कहाँ से साबित है? और वो आपको जवाब में दरुद शरीफ़ की फ़ज़ीलत और अहमियत बयान करना शुरू कर दे हत्ता कि वो आपको ये तक कह दे कि आप दरुद व सलाम के मुनकिर हैं!! ज़ाहिर है कि ये तो निहायत ही ग़लत तर्ज़े अमल (ग़लत तरीका) है कियोंकि दरुद शरीफ़ की फ़ज़ीलत और अहमियत में तो कोई इख़्तिलाफ़ नहीं, इसलिए इस के लिए दलाइल (दलीलें) देने की हाजत नहीं, जब्कि असल सवाल और इख़्तिलाफ़ तो अज़ान से पहले दुरुद व सलाम से मुतअ़ल्लिक़ है जिस पर क़ुरआन व सुन्नत से कोई दलील पेश नहीं की जा सकती! यही नौइयत ईद मीलाद से मुतअ़ल्लिक़ भी है कि जब उन्हें ईद मीलाद से मना किया जाता है और इसे बिदअत क़रार दिया जाता है तो उनकी तरफ से दो काम सामने आते हैं:

▫️ ईद मीलाद के सुबूत के लिए वही दलाइल (दलीलें) दिए जाते हैं जो या तो ख़ुद साख़्ता (अपनी तरफ़ से बनाए हुए) होते हैं और या उन का तअल्लुक़ ईद मीलाद से होता ही नहीं बल्कि हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के आम ज़िक्र मुबारक से होता है।


▫️ दूसरा काम ये किया जाता है कि ईद मीलाद को बिदअत क़रार देने वालों को गुस्ताख़े रसूल ﷺ क़रार दिया जाता है, और ये भी कह दिया जाता है कि इनके दिल में हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की मुहब्बत नहीं है, ये लोग हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के ज़िक्र को पसंद नहीं करते... मआज़ अल्लाह.. (अल्लाह की पनाह)


🌼 *हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की तारीख़े विलादत (पैदाइश की तारीख) में इख़्तिलाफ़ से वाज़ेह होने वाला एक अहम नुकता (प्वाइंट):*


ये बात बखूबी वाज़ेह (अच्छी तरह मालूम) है कि हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की तारीख़े विलादत की तअ़यीन (तय होने) में उम्मत के अहले इल्म का शदीद (सख्त) इख़्तिलाफ़ है जिसके नतीजे में मुतअ़द्दिद अक़वाल (राए) सामने आते हैं, ये इख़्तिलाफ़ ख़ुद इस तरफ़ इशारा कर रहा है कि हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की तारीख़े विलादत से मुतअ़ल्लिक़ ना तो हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने कोई हुक्म या फ़ज़ीलत बयान फ़रमाई, ना ही हज़रात सहाबा किराम में इस हवाले से किसी ख़ास अमल या जशन वग़ैरा का अहतिमाम था और ना ही हज़रात ताबिई़न व तबे ताबिई़न में, कियोंकि अगर इस तारीख़ से मुताल्लिक़ हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अधलैहि वसल्लम, हज़रात सहाबा व ताबईन किराम में कोई मख़सूस अमल या अहतमाम या जशन वग़ैरा राइज होता तो उम्मत में इस तारीख़े विलादत से मुताल्लिक़ इस क़दर इख़्तिलाफ़ ना होता।

इस अहम नुकते में हर मुसलमान के लिए बहुत बड़ा सबक़ है!!


🌼 *हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के ज़िक्र मुबारक की क़बूलियत की शराइत (शर्तें):*


हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम का ज़िक्र मुबारक अल्लाह तआला की बारगाह में तब क़बूल हो सकता है और उसको नेकी तब क़रार दी जा सकती है जब उस में 2 बातें पाई जाएं:

1️⃣ हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम का ज़िक्र मुबारक शरीअ़त की तालीमात के मुताबिक़ किया जाए यानी उसी तरीके से किया जाए जो क़ुरआन व सुन्नत और हज़रात सहाबा किराम से साबित हो, यही वजह है कि हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का ऐसा ज़िक्र जो शरीअत की तालीमात के मुताबिक़ ना हो वो अल्लाह तआला के नज़दीक हरगिज़ क़ाबिले क़बूल नहीं।

2️⃣ हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम का ज़िक्र मुबारक इख़्लास के साथ हो कि सिर्फ अल्लाह की रज़ा की ख़ातिर किया जाए, यही वजह है की जो अ़मल लोगों के दिखलावे, रियाकारी और नाम व नमूद के लिए किया जाए तो अल्लाह के हाँ उस की क़बूलियत नहीं होती।

हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के ज़िक्र मुबारक समेत किसी भी नेकी की क़बूलियत के लिए मज़कूरा बाला (ऊपर बतलाई गईं) दो बातें पाई जानी ज़रूरी हैं, अगर इन में से कोई एक बात भी ना पाई गई तो वो अमल हरगिज़ क़बूल नहीं होगा, बल्कि वो नेकी कहलाए जाने के क़ाबिल ही नहीं होती।

इन दो शराइत को समझने और मद्दे नज़र रखने (और इन का खयाल रखने) की बड़ी अहमियत और ज़रूरत है।

इसकी मिसाल ऐसी है कि जैसे नफ़्ल पढ़ना बहुत बड़ी नेकी और अल्लाह तआला के क़ुर्ब का ज़रीआ है, लेकिन अगर कोई शख़्स यही नफ़्ल मकरूह ओक़ात में अदा करता है (जिन वक़तो़ में नमाज़ पढ़ना मना है) तो उसको सवाब तो क्या मिलेगा बल्कि उल्टा गुनाह मिलेगा, कियोंकि मकरूह ओक़ात में नफ़्ल नमाज़ अदा करना जाइज़ ही नहीं, तो गोया कि नेकी जब शरीअ़त की तालीमात के ख़िलाफ़ की जाए तो वो नेकी नेकी नहीं रहती बल्कि गुनाह बन जाता है।

शैतान की अव्वलीन (पहली) कोशिश यही होती है कि ये अल्लाह का बंदा हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का ज़िक्र मुबारक करे ही ना, लेकिन जब वो किसी शख़्स को उस से रोक नहीं पाता तो उसकी दूसरी चाल यही होती है कि उस की ये नेकी ही बर्बाद कर दी जाए, और नेकी बर्बाद करने की एक सूरत ये है कि उस नेकी को शरीअत की तालीमात और हुदूद के मुताबिक़ अदा ना करने दिया जाए, बल्कि उस में ख़ुद साख़्ता (अपनी तरफ़ से बनाई गई) बातें या बिदआत व रुसूमात दाख़िल की जाएं।

इस लिए हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का ज़िक्र मुबारक तभी अल्लाह तआला की बारगाह में क़बूल हो सकता है जब वो इख़्लास के साथ शरीअ़त की तालीमात के मुताबिक़ किया जाए।


🌼 ई़द मीलादुन्नबी ﷺ से मुतअल्लिक़ दीगर तफ़सीलात के लिए सिलसिला इसलाह़े अग़लात़ नम्बर 44, 45, 46 भी मुलाह़ज़ा फरमाएं।


✍🏻: मुफ्ती मुबीनुर रह़मान साह़ब दामत बरकातुहुम

फाज़िल जामिआ़ दारुल उ़लूम कराची

हिंदी तर्जुमा व तसहील:

अल्तमश आ़लम क़ासमी

9084199927

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