✨❄इस़लाहे़ अग़लात़: अ़वाम में राएज ग़लतियों की इसलाह़ ❄✨
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🌻 माहवारी यानी है़ज़ से पाक हो जाने के बाद, शोहर के लिए बीवी से सुह़बत कब जाएज़ है?
📢 शादी शुदा मर्द और औ़रत के लिए निहायत ही अहम मसअला
🌻 औ़रत की माहवारी के मसाइल और उ़मूमी ग़फलत:
यह बात रोज़े रोशन की तरह वाज़ेह़ है कि, औरत के लिए माहवारी के मसाइल से मुकम्मल आगाही (और इन मसाइल को जानना) बड़ी अहमियत का हमिल है, क्योंकि नमाज़, रोज़ा तिलावत और इज़दिवाजी तअ़ल्लुक़ात समेत मुतअ़द्दिद (कई) अहम अह़काम का तअ़ल्लुक़ {इन्ही} (मसाइल के जानने) के साथ है, लेकिन इन अह़काम की इस क़दर एहमियत के बावजूद इन को सीखने से इसी क़दर गफलत पाई जाती है, इस पर ख़्वातीन को तवज्जुह देने की अशद ज़रूरत है।
और यह भी वाज़ेह रहे कि, माहवारी के मुतअ़द्दिद (कई) मसाइल ऐसे हैं, जिन से मर्द ह़ज़रात को भी वास्ता पड़ता रहता है, इस लिए उन को भी ऐसे अह़काम सीखने की अशद (सख़्त) ज़रूरत है।
इस की एक मिसाल ज़ेरे बह़स मसअला है कि, औ़रत जब माहवारी से पाक हो जाए, तो शौहर उस के साथ सुह़बत किस वक़्त कर सकता है?
उ़मूमी सूरते हा़ल यह है कि, सुहबत के लिए औरत का माहवारी से महज़ (सिर्फ़) पाक हो जाना काफ़ी समझते हैं, यह एक संगीन गलती है। कहने को तो यह अ़जीब मसअला है, पर इस की एहमियत का अंदाज़ा जै़ल की तफ़्सील से मालूम हो सकेगा।
🌻 मसअले की तफ़्सील:
क़ुरआन व सुन्नत की रू से माहवारी के अय्याम (दिनों) में शौहर के लिए बीवी से सुहबत करना जाएज़ नहीं होता, बल्कि माहवारी से पाक हो जाने के बाद ही शौहर के लिए उस से सुहबत करना जाएज़ होता है, अलबत्ता यहां यह मसअला निहायत ही अहम है कि, माहवारी से पाक हो जाने के बाद किस वक़्त शौहर के लिए बीवी से सुहबत जाएज़ है?
तो वाज़ेह रहे कि, इस मसअले की मुतअ़द्दिद (कई) सूर्तें हैं:
इस में यह देखा जाता है कि, औ़रत का खून आ़दत से पहले बंद हुआ या आदत पूरी होने पर बंद हुआ, या आदत के बाद बंद हुआ,
और यह भी देखा जाता है कि, औरत के लिए माहवारी की आदत मुक़र्रर (तै) है, या उस को पहली बार खून आ रहा है ;
इस तरह इस की मुतअ़द्दिद (कई) सूरतें बन जाती हैं, हर सूरत की तफसील और हु़क्म दर्जे जै़ल है:
1️⃣ औरत का खून, माहवारी की कम अज़ कम मुद्दत तीन दिन यानी 72 घंटे पूरे होने से पहले ही बंद हो जाए, तो अगर वह औरत "मुअ़तादह" हो यानी माहवारी के सिलसिले में उस की आदत मुक़र्रर हो, तो ऐसी सूरत में माहवारी की आदत तक सुहबत करना नाजाएज़ है, जब माहवारी के अय्याम (दिन) गुज़र जाएं, तो उस के बाद सुहबत करना जाएज़ है।
और अगर कोई औरत "मुब्तदि-अह" हो, यानी उस को ज़िंदगी में पहली बार माहवारी आ रही हो, तो ऐसी सूरत में दस दिन (और दस) रात यानी 240 घंटे पूरे होने तक सुहबत करना नाजाएज़ है, उस के बाद जाएज़ है।
2️⃣ माहवारी का खून माहवारी आने के तीन दिन बाद अपनी आदत से पहले बंद हो जाए, तो आदत तक शौहर के लिए उस से सुहबत करना जाएज़ नहीं, उस के बाद जाएज़ है।
3️⃣ माहवारी का खून माहवारी की आदत के मुताबिक बंद हो जाए, या आदत के बाद दस दिन रात पूरे होने से पहले बंद हो जाए, तो ऐसी सूरत में शौहर उस से सुहबत उस वक़्त कर सकता है, जब दो बातों में से कोई एक बात पाई जाए:
▪ या तो औरत पाक हो जाने के बाद गुस्ल कर ले, फिर उस के बाद सुहबत करना जाएज़ है।
▪ या उस औरत के ज़िम्मे एक नमाज़ क़जा़ रह जाए,
जैसे अगर एक औरत मग़रिब का वक़्त दाखिल हो जाने के बाद पाक हुई, लेकिन उस ने मग़रिब अदा नहीं की, ह़त्ता कि मग़रिब का वक़्त निकल गया, तो वो नमाज़ उस के जि़म्मे क़जा़ रह गई, अब इ़शा का वक़्त दाखिल हो जाने के बाद शौहर उस से गु़स्ल किए बग़ैर भी सुहबत कर सकता है।
🌺 यहां यह सवाल रह जाता है कि, इस दूसरी सूरत में औरत के जि़म्मे नमाज़ क़ज़ा रह जाने के लिए नमाज़ का वक़्त ख़त्म होने से किस क़दर (कितना) पहले पाक होना जरूरी है?
तो वाज़ेह़ रहे कि, अगर कोई औरत नमाज़ का वक़्त ख़त्म होने से इतना पहले पाक हो गई कि, वह फ़ौरन गुसल कर के सिर्फ तकबीरे तह़रीमा (नमाज़ की पहली तकबीर) ही कह सकती हो, तो यह नमाज़ भी उस के जि़म्मे क़ज़ा शुमार होती है।
🌻 मसअला:
मज़कूरा बाला (ऊपर बतलाई गई) तीसरी सूरत में अगर कोई औरत "मुब्तदि-अह" हो, यानी उस को पहली बार माहवारी आ रही हो और उस का खून दस दिन रात से पहले बंद हो जाए, तो ऐसी सूरत में दस दिन रात यानी 240 घंटे पूरे होने से पहले तक सुहबत करना नाजाएज़ है, उस के बाद जाएज़ है।
4️⃣ अगर औरत दस दिन रात यानी 240 घंटे पूरे होने पर पाक हो गई, तो पाक होते ही शौहर उस से सुहबत कर सकता है, अग्रचे ग़ुस्ल के बाद अफ़ज़ल है।
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(تفصیلی عبارت رد المحتار میں ملاحظہ فرمائیں۔)
☀️ فتاویٰ ہندیہ میں ہے:
وَمِنْهَا: حُرْمَةُ الْجِمَاعِ هَكَذَا في «النِّهَايَةِ» وَ«الْكِفَايَةِ»، وَلَهُ أَنْ يُقَبِّلَهَا وَيُضَاجِعَهَا وَيَسْتَمْتِعَ بِجَمِيعِ بَدَنِهَا ما خَلَا ما بين السُّرَّةِ وَالرُّكْبَةِ عِنْدَ أبي حَنِيفَةَ وَأَبِي يُوسُفَ هَكَذَا في «السِّرَاجِ الْوَهَّاجِ»، فَإِنْ جَامَعَهَا وهو عَالِمٌ بِالتَّحْرِيمِ فَلَيْسَ عليه إلَّا التَّوْبَةُ وَالِاسْتِغْفَارُ وَيُسْتَحَبُّ أَنْ يَتَصَدَّقَ بِدِينَارٍ أو نِصْفِ دِينَارٍ كَذَا في «مُحِيطِ السَّرَخْسِيِّ». وَمِنْهَا: وُجُوبُ الِاغْتِسَالِ عِنْدَ الِانْقِطَاعِ هَكَذَا في «الْكِفَايَةِ»
، إذَا مَضَى أَكْثَرُ مُدَّةِ الْحَيْضِ وهو الْعَشَرَةُ يَحِلُّ وَطْؤُهَا قبل الْغُسْلِ مُبْتَدَأَةً كانت أو مُعْتَادَةً وَيُسْتَحَبُّ له أَنْ لَا يَطَأَهَا حتى تَغْتَسِلَ هَكَذَا في «الْمُحِيطِ»، وإذا انْقَطَعَ دَمُ الْحَيْضِ لِأَقَلَّ من عَشَرَةِ أَيَّامٍ لم يَجُزْ وَطْؤُهَا حتى تَغْتَسِلَ أو يَمْضِيَ عليها آخِرُ وَقْتِ الصَّلَاةِ الذي يَسَعُ الِاغْتِسَالَ وَالتَّحْرِيمَةَ؛ لِأَنَّ الصَّلَاةَ إنَّمَا تَجِبُ عليها إذَا وَجَدَتْ من آخِرِ الْوَقْتِ هذا الْقَدْرَ هَكَذَا في «الزَّاهِدِيِّ»، وَأَمَّا مُضِيُّ كَمَالِ الْوَقْتِ بِأَنْ يَنْقَطِعَ دَمُهَا في أَوَّلِ الْوَقْتِ وَيَدُومَ الِانْقِطَاعُ حتى يَمْضِيَ الْوَقْتُ فَلَيْسَ بِمَشْرُوطٍ هَكَذَا في «النِّهَايَةِ»، لو انْقَطَعَ دَمُهَا دُونَ عَادَتِهَا يُكْرَهُ قُرْبَانُهَا وَإِن اغْتَسَلَتْ حتى تَمْضِيَ عَادَتُهَا وَعَلَيْهَا أَنْ تُصَلِّيَ وَتَصُومَ لِلِاحْتِيَاطِ هَكَذَا في «التَّبْيِينِ»، وَلَوْ انْقَطَعَ لِأَقَلَّ من عَشَرَةِ أَيَّامٍ ولم تَجِدْ مَاءً فَتَيَمَّمَتْ لم يَحِلَّ وَطْؤُهَا عِنْدَ أبي حَنِيفَةَ وَأَبِي يُوسُفَ رَحِمَهُمَا اللهُ حتى تُصَلِّيَ، فَإِنْ وَجَدَتْ الْمَاءَ بَعْدَهُ تَحْرُمُ الْقِرَاءَةُ لَا الْوَطْءُ عِنْدَنَا كَذَا في «الزَّاهِدِيِّ»، قال الْخُجَنْدِيُّ: وهو الْأَصَحُّ كَذَا في «السِّرَاجِ الْوَهَّاج».
(الْبَابُ السَّادِسُ في الدِّمَاءِ الْمُخْتَصَّةِ بِالنِّسَاءِ: الْفَصْلُ الرَّابِعُ في أَحْكَامِ الْحَيْضِ وَالنِّفَاسِ وَالِاسْتِحَاضَةِ)
✍🏻: मुफ्ती मुबीनुर रह़मान साह़ब दामत बरकातुहुम
फाज़िल जामिआ़ दारुल उ़लूम कराची
हिंदी तर्जुमा,व तसहील:
अल्तमश आ़लम क़ासमी
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