तरबूज, चिकन और ढाई प्रतिशत

 


तरबूज, चिकन और ढाई प्रतिशत


बहुत खूब! ग़ज़ब की मिसाल है


 हम तरबूज खरीदते हैं, उदाहरण के लिए, पांच किलो का फल, जब हम इसे खाते हैं, तो हम पहले इसके मोटे छिलके को छीलते हैं, पांच किलो से कम से कम एक किलो छिलका निकलता है, यानी लगभग बीस प्रतिशत। क्या हमें इसका पछतावा है? क्या हम चिंतित हैं? क्या हमें लगता है कि तरबूज को छिलके समेत खाना चाहिए? नहीं बिल्कुल नहीं...


 यही बात माल्टा के साथ भी है, छिलका उतारकर भी हम खुशी से खाते हैं, लेकिन छिलका फेंकने में दर्द नहीं होता... हम चिकन खरीदते हैं वह जीवित है, लेकिन जब खाना शुरू करते हैं, तो उसके बाल, खाल और पेट की गंदगी निकालकर फेंक देते हैं....... क्या दुख होता है? नहीं !


फिर चालीस हजार में से एक हजार देने पर और लाख में से ढाई हजार देने पर हमें इतना कष्ट क्यों होता है? हालांकि यह ढाई फीसदी यानी सौ में से ढाई रुपये, मात्र ढाई रुपये। ...... 


ये तरबूज, केले, आम और मालटे के छिलके से कितना कम है, इसे ज़कात कहा गया है, यह पाकी है, दौलत भी पाक ईमान भी पाक मन और तन भी पाक ....... और समाज भी खुशहाल 

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