✨❄ इस़लाहे़ अग़लात़: अ़वाम में राएज ग़लतियों की इसलाह़ ❄✨
सिलसिला 49:
🌻 *हुज़ूर अक़दस ﷺ के साथ इ़श्क़ व मुह़ब्बत का ह़क़ीक़ी मैयार (और सही पैमाना)*
🌼 *हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की मुहब्बत ईमान का अहम जुज़:*
ये बात रोज़े रोशन से भी ज़्यादा वाज़ेह है कि हुज़ूर अक़दस हबीबे ख़ुदा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मुहब्बत ईमान का निहायत ही अहम जुज़ (और हिस्सा) है, और ये भी हक़ीक़त है कि हर मोमिन के दिल में हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की मुहब्बत अपनी जान, माल, औलाद, वालिदैन बल्कि पूरी कायनात से भी ज़्यादा होनी चाहिए, तब जाके ईमान कामिल हो सकता है, जैसा कि सही बुख़ारी में हदीस है कि:
15- عَنْ أَنَسٍ رضی اللہ عنه قَالَ: قَالَ النَّبِيُّ ﷺ: «لَا يُؤْمِنُ أَحَدُكُمْ حَتَّى أَكُونَ أَحَبَّ إِلَيْهِ مِنْ وَالِدِهِ وَوَلَدِهِ وَالنَّاسِ أَجْمَعِينَ».
🌼 *हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के साथ इश्क़ व मुहब्बत का मैयार (और पैमाना):*
ये बात निहायत ही अहम है कि हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के साथ इश्क़ व मुहब्बत का मैयार और पैमाना क्या है ताकि हर उम्मती अपनी मुहब्बत और इश्क़ के दुरुस्त और मोतबर होने का अंदाज़ा लगा सके कि वो जिस इश्क़े रिसालत का दावेदार है वो वाक़िअतन (ह़क़ीक़त में) इश्क़ व मुहब्बत है भी या नहीं? और वो अल्लाह तआ़ला और उसके रसूल सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के नज़दीक (सही और) मोतबर है भी या नहीं? इस मैयार और पैमाने की ज़रूरत इसलिए है कि आजकल हर एक हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ इश्क़ व मुहब्बत का दावेदार है और इसी बुनियाद पर इश्क़ व मुहब्बत के नाम पर मुतअ़द्दिद (कई) नित नए नमूने, पैमाने और आमाल देखने को मिलते हैं जैसे कि माहे रबी उल अव्वल में इश्क़े रिसालत के नाम पर बहुत से काम किये जाते हैं और उन को इश्क़े रिसालत का मैयार (पैमाना) क़रार दिया जाता है, तो इसके लिए कोई पैमाना और मैयार होना चाहिए ताकि हर एक अपने इश्क़ व मुहब्बत को उस पर परख सके और अगर अपनी ग़लती नज़र आए तो उसको अपनी ग़लतियों की इस्लाह की तरफ़ तवज्जु हो सके।
इसलिए ज़ैल में (नीचे) इश्क़े रिसालत के इसी मैयार और पैमाने की वज़ाहत करते हैं।
🌼 *इश्क़े रिसालत का मैयार: सुन्नत और सहाबा किराम:*
क़ुरआन व सुन्नत से वाक़िफ़ (जानकार) शख़्स इस हक़ीक़त को बखूबी समझ सकता है कि हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ इश्क़ व मुहब्बत का पैमाना और मैयार सुन्नत और सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अ़न्हुम हैं कि वही अमल मोतबर होगा जो सुन्नत और सहाबा किराम के मुताबिक़ हो, और इश्क़ व मुहब्बत के नाम पर सिर्फ उसी अमल और तरीक़े को अपनाया जा सकता है जो सुन्नत और सहाबा किराम के मुताबिक़ हो, लेकिन जो अ़मल सुन्नत और सहाबा किराम के मुताबिक़ ना हो, उसे इश्क़े रिसालत के नाम पर नहीं अपनाया जा सकता और ना ही उसे दीन क़रार दिया जा सकता है।
ये एक वाज़ेह मैयार है जिस पर हर मुसलमान अपने इश्क़े रिसालत की अदाओं को जाँच सकता है और ये मैयार ख़ुद हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मुक़र्रर फ़रमाया है, चुनांचे सुनने तिर्मिज़ी की हदीस है कि हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया कि: "बनी इसराईल 72 फ़िरक़ों में बटे थे, जब्कि मेरी उम्मत में 73 फ़िरक़े बनेंगे, उन में एक के सिवा बाक़ी सब जहन्नम में जाएँगे! सहाबा किराम ने अर्ज़ किया कि ऐ अल्लाह के रसूल! वो एक कामयाब और बरहक़ जमाअत कौन सी होगी? तो हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि ’’مَا أَنَا عَلَيْهِ وَأَصْحَابِي‘‘ यानी जो मेरे और मेरे सहाबा के तरीक़े पर होगी।"
2641- عَنْ عَبْدِ اللهِ بْنِ يَزِيدَ عَنْ عَبْدِ اللهِ بْنِ عَمْرٍو قَالَ: قَالَ رَسُولُ اللهِ ﷺ: «لَيَأْتِيَنَّ عَلَى أُمَّتِي مَا أَتَى عَلَى بني إسرائيل حَذْوَ النَّعْلِ بِالنَّعْلِ، حَتَّى إِنْ كَانَ مِنْهُمْ مَنْ أَتَى أُمَّهُ عَلَانِيَةً لَكَانَ فِي أُمَّتِي مَنْ يَصْنَعُ ذَلِكَ، وَإِنَّ بني إسرائيل تَفَرَّقَتْ عَلَى ثِنْتَيْنِ وَسَبْعِينَ مِلَّةً، وَتَفْتَرِقُ أُمَّتِي عَلَى ثَلَاثٍ وَسَبْعِينَ مِلَّةً، كُلُّهُمْ فِي النَّارِ إِلَّا مِلَّةً وَاحِدَةً»، قَالُوا: وَمَنْ هِيَ يَا رَسُولَ اللهِ؟ قَالَ: «مَا أَنَا عَلَيْهِ وَأَصْحَابِي».
इस हदीस में हक़ जमाअत की जो अलामत (और निशानी) बयान फ़रमाई गई है वो यही है कि जो सुन्नत और सहाबा किराम के तरीक़े पर हो, ये अलामत दीन के हर मामले में एक वाज़ेह पैमाना है जिसकी बुनियाद पर हर एक इन्फ्रादी और इज्तिमाई तौर पर अपने नज़रियात और आमाल जाँच सकता है। यक़ीनन ये मैयार अपनाने से बहुत से मसाइल और मुश्किलात हल हो सकती हैं और बहुत सी परेशानियों, बिदआत और ख़ुद साख़्ता (अपनी तरफ़ से बनाए हुए) आमाल और नज़रियात से नजात मिल सकती है!!
🌼 *हज़राते सहाबा किराम इश्क़े रिसालत का बेहतरीन और कामिल नमूना हैं:*
सुन्नत तो हर मुसलमान के लिए बेहतरीन नमूना और मेयार है ही, यही वजह है कि जब दीन या इश्क़े रिसालत के नाम पर कोई ऐसी बात ईजाद की जाए जो सुन्नत से साबित ना हो तो गोया कि सुन्नत हाथ से छूट गई और बिदअत हाथ आ गई, जो कि बहुत बड़ा नुक़सान है।
जहाँ तक हज़रात सहाबा की बात है तो वो सुन्नत की हक़ीक़त से वाक़िफ़ (और उसे जानने वाले) थे, सुन्नत पर मर मिटने वाले थे कि इस से ज़र्रा बराबर भी इनेहराफ़ (और हटने) को जुर्म समझते थे, और इश्क़े रिसालत का कामिल और बेहतरीन नमूना भी थे, इस लिए उन को भी मैयार क़रार दिया गया।
इस से वाज़ेह तौर पर ये बात सामने आती है कि हज़रात सहाबा किराम जब इश्क़े रिसालत का बेहतरीन और कामिल नमूना थे तो उन्होंने जो काम नहीं अपनाये तो उन्हें आज दीन के नाम पर हरगिज़ नहीं अपनाया जा सकता, इसी तरह इश्क़े रिसालत के तमाम तर आमाल और मैयारात (और पैमाने) उन में मौजूद थे, इसलिए जो अमल उन्होंने इश्क़े रिसालत के नाम पर नहीं अपनाया आज उसे इश्क़े रिसालत के नाम पर हरगिज़ नहीं अपनाया जा सकता, कियोंकि हज़रात सहाबा ज़्यादा मुस्तहिक़ थे इस बात के कि वो इश्क़े रिसालत के नाम पर नित नए आमाल की बुनियाद रखते हालाँकि ऐसा नहीं है बल्कि उन्होंने दीन में नित नए तरीक़े ईजाद करने को जुर्म समझा।
🌼 *सुन्नत और सहाबा किराम से वाबस्तगी से मुतअ़ल्लिक़ चंद रिवायात:*
सुन्नत और सहाबा किराम के मैयार को मज़बूती से थामने की अशद्द (और सख्त) ज़रूरत है। ज़ैल में (नीचे) सुन्नत और सहाबा से मुताल्लिक़ चंद रिवायात ज़िक्र की जाती हैं जिन से ये बात बखूबी वाज़ेह हो सकेगी:
1️⃣ सुनने तिरमिज़ी में है कि हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा के सामने एक शख़्स को छींक आयी तो उसने कहा: اَلْحَمْدُ لِلّٰهِ، وَالسَّلَامُ عَلَى رَسُولِ اللهِ, तो हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा ने फ़रमाया कि मैं भी कहता हूँ कि: اَلْحَمْدُ لِلّٰهِ، وَالسَّلَامُ عَلَى رَسُولِ اللهِ, लेकिन इस तरह हमें हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने नहीं सिखाया बल्कि यूं सिखाया है कि: اَلْحَمْدُ لِلّٰهِ عَلىٰ كُلِّ حَالٍ.
2738- عَنْ نَافِعٍ: أَنَّ رَجُلًا عَطَسَ إِلَى جَنْبِ ابْنِ عُمَرَ، فَقَالَ: اَلْحَمْدُ لِلّٰهِ، وَالسَّلَامُ عَلَى رَسُولِ اللهِ. قَالَ ابْنُ عُمَرَ: وَأَنَا أَقُولُ: اَلْحَمْدُ لِلّٰهِ، وَالسَّلَامُ عَلَى رَسُولِ اللهِ، وَلَيْسَ هَكَذَا عَلَّمَنَا رَسُولُ اللهِ ﷺ، عَلَّمَنَا أَنْ نَقُولَ: « اَلْحَمْدُ لِلّٰهِ عَلىٰ كُلِّ حَالٍ». (بَابُ مَا يَقُولُ العَاطِسُ إِذَا عَطَسَ)
गौर कीजिये कि छींकने वाले शख़्स ने छींकने के बाद अल्हम्दुलिल्लाह तो कहा लेकिन साथ में हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर सलाम भी भेज दिया, हालांकि सब जानते हैं कि छींक के बाद की दुआ में अल्हम्दुलिल्लाह के बाद दुरुद व सलाम पढ़ना सुन्नत से साबित नहीं, इस पर हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा जैसे आशिक़े सुन्नत सहाबी ने फौरन तम्बीह फ़रमाई कि मैं भी इसका क़ाइल (और मानता) हूँ कि अल्लाह तआ़ला की हम्द व सना भी होनी चाहिए और हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर दुरुद व सलाम भी पढ़ना चाहिए यानी कि दुरुद व सलाम की एहमियत व फ़ज़ीलत का मैं भी क़ाइल हूँ लेकिन ये इस का मौक़ा नहीं, इस लिए छींक के बाद दुरुद व सलाम पढ़ना दुरुस्त नहीं कियोंकि हमें हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने छींक के बाद अल्ह़म्दुलिल्लाह ही सिखाया है जिसमें दुरुद व सलाम का ज़िक्र नहीं।
▪ इस से मालूम हो जाता है कि छींक के बाद की दुआ में अल्हम्दुलिल्लाह के बाद दुरुद व सलाम सुन्नत से साबित ना था इस लिए हज़रत इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा ने इसे पसन्द नहीं फ़रमाया और तम्बीह फ़रमाई, गोया कि दुरुद शरीफ़ पढ़ना बहुत बड़ा अमल है लेकिन इस के लिए ऐसा मौक़ा और तरीक़ा इख़्तियार करना जो सुन्नत और सहाबा से साबित ना हो उसे बिदअत ही क़रार दिया जा सकता है।
▪ इस से से अज़ान के क़ब्ल (अज़ान से पहले) पढ़े जाने वाले मुरव्वजा दुरुद व सलाम की हक़ीक़त भी वाज़ेह (और मालूम) हो जाती है।
2️⃣ इमाम सईद बिन मुसय्यिब ताबिई रहि़महुल्लाह ने एक शख़्स को देखा कि वो असर के बाद दो रकअत नफ़्ल अदा कर रहा था [तो इमाम सईद बिन मुसय्यिब ताबिई रहिमहुल्लाह ने उन्हें इस से मना फ़रमाया] तो उस शख़्स ने कहा कि क्या अल्लाह तआला मुझे नमाज़ अदा करने पर भी अज़ाब देगा? तो इमाम सईद बिन मुसय्यिब ने जवाब में फ़रमाया कि नमाज़ पर तो अज़ाब नहीं देगा लेकिन सुन्नत की ख़िलाफ़ वर्ज़ी पर ज़रूर अज़ाब देगा।
☀️ سنن الدارمي:
470- حَدَّثَنَا قَبِيصَةُ: أَنْبَأَنَا سُفْيَانُ عَنْ أَبِي رَبَاحٍ -شَيْخٌ مِنْ آلِ عُمَرَ- قَالَ: رَأَى سَعِيدُ بْنُ الْمُسَيَّبِ رَجُلًا يُصَلِّي بَعْدَ الْعَصْرِ الرَّكْعَتَيْنِ, يُكَبِّرُ، فَقَالَ لَهُ: يَا أَبَا مُحَمَّدٍ، أَيُعَذِّبُنِي اللهُ عَلَى الصَّلَاةِ؟ قَالَ: لَا، وَلَكِنْ يُعَذِّبُكَ اللهُ بِخِلَافِ السُّنَّةِ.
(بابُ مَا يُتَّقٰى مِنْ تَفْسِيرِ حَدِيثِ النَّبِيِّ ﷺ)
3️⃣ हज़रत इमाम शातिबी रहि़महुल्लाह अपनी शुहरा आफ़ाक़ किताब "अल-एतिसाम" में फरमाते हैं कि हज़रत हुज़ैफ़ा बिन यमान रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं कि:
"जो इबादत हज़रात सहाबा किराम ने नहीं की वो इबादत ना करो, कियोंकि पहले लोगों ने पिछलों (बाद वालों) के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी [जिसको ये पूरा करें], ख़ुदा तआला से डरो और पहले लोगों के तरीक़े को इख़्तियार करो। इसी मज़मून की रिवायत हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊ़द से भी मनक़ूल है। (جواہر الفقہ)
وَمِنْ أَجْلِ ذَلِكَ قَالَ حُذَيْفَةُ رَضِيَ اللهُ عَنْهُ: كُلُّ عِبَادَةٍ لَمْ يَتَعَبَّدْهَا أَصْحَابُ رَسُولِ اللهِ ﷺ فَلَا تعبَّدوها؛ فَإِنَّ الْأَوَّلَ لَمْ يَدَعْ لِلْآخِرِ مَقَالًا، فَاتَّقُوا اللهَ يَا مَعْشَرَ الْقُرَّاءِ، وَخُذُوا بِطَرِيقِ مَنْ كَانَ قبلكم. ونحوه لابن مسعود أيضًا. (الباب الثامن في الفرق بين البدع والمصالح المرسلة)
☀️ البدع لابن وضاح القرطبي:
10- عَنْ عَبْدِ اللهِ بْنِ عَوْنٍ عَنْ إِبْرَاهِيمَ قَالَ: قَالَ حُذَيْفَةُ بْنُ الْيَمَانِ: اتَّقُوا اللهَ يَا مَعْشَرَ الْقُرَّاءِ، خُذُوا طَرِيقَ مَنْ كَانَ قَبْلَكُمْ، وَاللهِ لَئِنِ اسْتَقَمْتُمْ لَقَدْ سُبِقْتُمْ سَبْقًا بَعِيدًا، وَلَئِنْ تَرَكْتُمُوهُ يَمِينًا وَشِمَالًا لَقَدْ ضَلَلْتُمْ ضَلَالًا بَعِيدًا. (بَابُ مَا يَكُونُ بِدْعَةً)
4️⃣ हज़रत इमाम शातिबी रहिमहुल्लाह अपनी शुहरा आफ़ाक़ किताब, "अल-एतिसाम" में फरमाते हैं कि हज़रत इब्ने मसऊ़द रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं कि:
तुम हमारी पैरवी करो और दीन में नई बातें ईजाद ना करो, ये तुम्हारे लिए काफ़ी है।
وَخَرَّجَ [ابْنِ وَضَّاحٍ] أَيْضًا عَنْ عبد الله بن مسعود رضي الله تعالى عَنْهُ أَنَّهُ قَالَ: اتَّبِعُوا آثَارَنَا وَلَا تَبْتَدِعُوا فَقَدْ كُفِيتُمْ.
☀️ البدع لابن وضاح القرطبي:
11 - حَدَّثَنَا أَسَدٌ قَالَ: أخبرنا أَبُو هِلَالٍ عَنْ قَتَادَةَ عَنْ عَبْدِ اللهِ بْنِ مَسْعُودٍ قَالَ: اتَّبِعُوا آثَارَنَا، وَلَا تَبْتَدِعُوا، فَقَدْ كُفِيتُمْ.
(بَابُ مَا يَكُونُ بِدْعَةً)
☀️ مجمع الزوائد:
853- عن عبد الله بن مسعود قال: اتبعوا ولا تبتدعوا فقد كفيتم.
رواه الطبراني في الكبير ورجاله رجال الصحيح.
🌼 *दीन अपनी असली और हक़ीक़ी सूरत में कब बरक़रार रह सकता है?*
दीन अपनी असली और हक़ीक़ी सूरत में तभी बरक़रार (बाक़ी) रह सकता है जब उस के लिए सुन्नत और सहाबा को मैयार क़रार दिया जाए कियोंकि अगर हर एक अपनी तरफ़ से दीन के नाम पर कोई अधमल ईजाद करेगा या अपने किसी ख़ुद साख़्ता (अपनी तरफ़ से बनाए हुए) अमल को इश्क़े रिसालत का मैयार क़रार देगा तो दीन का हुलिया ही मस्ख़ हो जाएगा (दीन की शकल बदल जाएगी) और दीन अपनी असली सूरत में बाक़ी नहीं रह पाएगा, और ना ही बाद वालों को हक़ीक़ी दीन पहुँच सकेगा, हालाँकि ख़ुद साख़्ता (अपनी तरफ़ से बनाए हुए) आमाल और पैमानों का तो नाम दीन नहीं। इस लिए दीन और इश्क़े रिसालत के मामले में सुन्नत और सहाबा किराम को मैयार क़रार देने की एक बड़ी ज़रूरत ये भी है।
🌼 *माहे रबी उल अव्वल और मुरव्वजा बिदआत:*
मा क़ब्ल (ऊपर) की तफ़्सील से ये बात बखूबी वाज़ेह (अच्छी तरह मालूम) हो जाती है कि आजकल माहे रबी उल अव्वल में हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के साथ इश्क़ व मुहब्बत के नाम पर जो नित नए तरीक़े राइज हैं जैसे: हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के ज़िक्र मुबारक के लिए माहे रबी उल अव्वल को ख़ास करना, हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मुहब्बत के नाम पर यौमे विलादत या मीलाद मनाना, माहे रबी उल अव्वल और ख़ुसूसन इस की 12 तारीख़ को हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की आमद या मीलाद की ख़ुशी में जलसे जुलूस मुनअक़िद करना, इसको ईद क़रार दे कर ईद जैसे आमाल सरअंजाम देना, चराग़ाँ करना, हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की तारीख़े विलादत को सुबह सादिक़ के वक़्त आमदे मुबारक की ख़ुशी में क़याम करना, या मीलाद उन नबी सलल्ललाहु अ़लैहि वसल्लम की निसबत से दीगर उमूर (दूसरे काम) सरअंजाम देना शरीअत की नज़र में क्या हैसियत रखता है?? क्या ये काम हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम, हज़रात सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम, हज़रात ताबईन और तबेअ ताबईन रह़िमहुमुल्लाह से साबित हैं? अगर साबित हैं तो ज़ाहिर है कि फिर तो किसी मुसलमान के लिए इसमें तरद्दुद (और शक) की गुंजाइश नहीं, लेकिन ये हक़ीक़त है कि हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के 23 साला अहदे नुबुव्वत में रबी उल अव्वल में मीलाद के नाम पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, फ़िर तकरीबन 30 साल तक खिलाफते राशिदा का ज़माना रहा, फिर तक़रीबन दो सौ साल तक खैरुल कुरुन का ज़माना बनता है, ये पूरा अर्सा (ज़माना) माहे रबी उल अव्वल में जशने मीलाद से ख़ाली नज़र आता है, तो क्या वजह है कि उन्होंने इश्क़ के नाम पर ये जशन नहीं मनाया? और उसके तमाम तर असबाब मौजूद होने के बावजूद भी उन्होंने ये ईद ईजाद नहीं की, तो आज ये सब कुछ कैसे दुरुस्त हो सकता है??आज ये इश्क़ के नाम पर कैसे अपनाया जा सकता है?? आज ये हुज़ूर अक़दस सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ इ़श्क़ का मैयार कैसे बन सकता है?? इस तमाम सूरते हाल से ईद मीलाद का बिदअत होना बखूबी वाज़ेह (और अच्छी तरह मालूम) हो जाता है।
🌻 *ख़ुलासा:*
मा क़ब्ल (ऊपर) की तमाम तफ़्सील का ख़ुलासा ये है कि हुज़ूर अकरम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की मुहब्बत और इश्क़ वही मोतबर है जो सुन्नत और सहाबा किराम के तरीक़े के मुताबिक़ हो, लेकिन जो तरीक़ा और अमल उसके ख़िलाफ़ हो तो वो अल्लाह के हाँ हरगिज़ मोतबर नहीं अगरचे (भले ही) उसको इश्क़े रिसालत के नाम पर ईजाद किया जाए, बल्कि वो अल्लाह तआ़ला की नाराज़गी का ज़रीआ बनेगा।
✍🏻: मुफ्ती मुबीनुर रह़मान साह़ब दामत बरकातुहुम
फाज़िल जामिआ़ दारुल उ़लूम कराची
हिंदी तर्जुमा व तसहील:
अल्तमश आ़लम क़ासमी
9084199927
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